Saturday 17 November 2012

एकदा नैमिषारण्ये ... ...


संसार के नैमिषारण्य में एकबार
कवि का ज्ञान खो गया
कवि हुआ थोड़ा-सा हैरान

संसार के नैमिषारण्य में एकबार
गुम हो गई कवि की बुद्धि
कवि का सिर चकराया
कवि रहने लगा कुछ-कुछ परेशान

आज इसी महावन में हेरा गया है
कवि का हृदय
पागल, बदहवास और बेचैन कवि
मणि खोए साँप की तरह
भटक रहा है वन-वन
अब वह रचनारंभ कर रहा है बार-बार
फिर बीच में
अटक रहा है

साधो! बहुत जलन कवि-मन में
साधो! आग लग इस वन में ।
*** *** ***


घिसाव 
भागवत शरण झा अनिमेष

आदमी का मतलब रुपैया 
घिसते-घिसते अठन्नी 
घटते - घटते  चवन्नी 
बिकते - बिकते धेला 
टिकते - टिकते छदाम 
और अंततः 
हे राम !

भागवत शरण झा 'अनिमेष'
वरिष्ठ कर-सहायक 
आयकर विभाग, पटना  बिहार।

 चित्रथा....

 भागवत शरण झा अनिमेष

आज मैं ने कुछ विचित्र देखा
चित्रकार को तूलिका से ऱचते चित्र देखा
इस रेखाँकन में
पँडिज्जी के पुत्र-कलत्र
लगा रहे थे झाड़ू
मजबूरियों के ठेले ठेल रहे थे
राणा, राजा और ठाकुरों के वंशज
सारे सवर्ण कर  रहे थे बूट-पालिश
बिना नालिस
इस चित्र में महारानी
भर रही थी किसी महादलित के घर में पानी
आज मैनें बाइसवीं सदी के भारत को
मित्र सचित्र देखा
वैसे भी  मुझे काली जीभवाला ब्राह्मण कहा जाता है
मेरी रसना से निकली हर बात का गूढ़ार्थ
प्राय: रंग लाता है
ठीक वैसा हीं अघटित घट जाता है

कवि! तुम क्या करोगे?
इस चित्र को वरोगे?... अथवा नौटंकी की शैली में
गाओगे-
कुरसी! कुरसी! पुकारूँ सदन में, प्यारी
कूरसी बसी मेरे मन में....!



भागवत शरण झा 'अनिमेष'
वरिष्ठ कर-सहायक 
आयकर विभाग, पटना  बिहार।


Monday 5 November 2012

डर 
  भागवत शरण झा 'अनिमेष'
सुना है 
इस शहर में भी है 
डर 

डर घूमता है सडकों पर 
रूकता है चौराहों पर 
रात में फिजाओं में 
तैरता है 

डर के हाथ-पाँव नहीं होते 
नहीं होते नख-शिख 
लेकिन जहाँ - तहाँ दिख जाते हैं 
उसके पाँव के निशान 

हम खोजते हैं डर को 
अपनी आशंकाओं के अनुरूप 
मगर वह धूर्त 
हमारे चेहरे पर होता है 
आँखों की पुतलियों में नाचता है
ह्रदय में हँसता है 
जेहन में रेंगता है 

बाघ की आँखों में देखो 
वहां भी गोल-गोल घूमकर 
छल्ले-सा नाचता है डर 
यह सारा शहर डर  का जबड़ा ही है 
जिसके अन्दर हैं हम 
क्या पता कब खा जाए ?
हर तरफ बज रही है 
डर की सिंफनी 
पहले ईश्वर के हवाले था 
अब डॉ के हवाले है शहर 

मासूम गिलहरी पूछती है 
अमलतास से- क्या होता है डर ?
तभी लहलहा उठती है डर की फसल 
बसंत लहूलुहान हो जाता है 

जो कहते हैं की नहीं डरते 
झूठ बोलते हैं 
जबकि झूठ भी है दो अक्षरों का डर 
वैसे ही है जैसे मृत्यु है 
ढाई अक्षरों का डर 
जीवन है तीन अक्षरों का डर 

हमें करना होगा  युद्ध
डर के विरूद्ध 
खोजना होगा डर के अंत का उपाय 
अब तक की पीढियाँ 
डरी हुई पीढियाँ ही मानी जाएँगी 

अब समय आ गया है 
की डर के पर्यायवाची शब्दों की 
कर लें शीघ्रता से शिनाख्त 
घेरकर मार डालें डर को 
रोक दें डर का पुनर्जन्म 
कि कहीं भी दिखे नहीं डर 
नवपूंजीवाद-सा विराट 
साँप-जैसा सुन्दर 

जब नहीं होगा डर 
तब खेलेंगे धुल में बच्चे 
हँसेगा किसान 
मुण्डेर पर आएगी गोरैया 
और लिखेगा कवि 
मुक्तिप्रसंग की एक और कविता 

***   ***   ***

भागवत शरण झा 'अनिमेष'वरिष्ठ कर-सहायक आयकर विभाग, पटना  बिहार।



कविता : माँ का विसर्जन 
संकलित : अँधेरे में ध्वनियों के बुलबुले 
संपादक : नन्द किशोर नवल 
प्रकाशक : सारांश प्रकाशन दिल्ली 
 

Tuesday 23 October 2012

माँ का विसर्जन

माँ का विसर्जन
                     -भागवत शरण झा 'अनिमेष'
माँ फिर घर से आई है
लाई है साथ में स्मृतियों की सौगात
टूटते - बिखरते सम्बन्धों के अवशेष
उम्र की ढलान पर हांफती थकान
विभाजन की पीड़ा
और 'फुक्का मुट्ठी ' होने का दर्द

माँ के साथ नहीं आई है वह माँ
जो शरद पूनम की रात 
चूल्हा पूजकर पकाती थी खीर
गृहिणी के गौरव से दिपता था मुख-कुमुद
मातृत्व के उजास से
दमकता था पूरा परिवार।

वह माँ भी नहीं आई है इस माँ के साथ 
नवरात्र की हर रात 
गुहराती थी देवी को 
करती थी टोटके
हमारे सुमंगल के लिए 
अथवा वह जो दिवाली के भिनसार 
सूप पीट-पीटकर 
हंकाती थी दलिद्दर 
और न्योतती  थी लक्ष्मी।

माँ के लिए वे दिन हो गए अतीत के गीत 
जब गणेश - चौथ के दिन 
जुटता था पूरा परिवार 
हुलसकर हम सब दिखाते थे उगते चाँद को 
छछिया - भर दही 
बिखरे होते थे कदली - पात पर 
पान, फूल, दूध, धान .... 

'जुड़ - शीतल' के दिन 
हम सबको जुड़ानेवाली 
दादी की तरह 
माँ भी झेल रही है
साँझा चूल्हा के टूटने की त्रासदी।

बार-बार आएगी माँ
पर स्मृतियों में रची-बसी वह माँ 
फिर कभी लौटेगी ?










भागवत शरण झा 'अनिमेष'
वरिष्ठ कर-सहायक 
आयकर विभाग, पटना  बिहार।



कविता : माँ का विसर्जन 
संकलित : अँधेरे में ध्वनियों के बुलबुले 
संपादक : नन्द किशोर नवल 
प्रकाशक : सारांश प्रकाशन , दिल्ली 


Monday 22 October 2012










पूरा का पूरा चाँद


    अभिषेक चन्दन सावर्ण 



पूरा का पूरा चाँद

मनपोखर में देखता हूँ

ह्रदय की गति में 
सांसों को टेकता हूँ 
चाँद को देखता हूँ


शांत नदी में
किनारे बैठ झांकता हूँ
दूर कहीं गगन में  
सारे कंटकों को फेंकता हूँ
चाँद को देखता हूँ
  

 कवि गढ़ो (नवसृजन - पुनर्दर्शन )
 

Sunday 21 October 2012



 होशवालों को खबर क्या बेखुदी क्या चीज़ है?
होशवालों को खबर क्या
बेखुदी क्या चीज़ है

इश्क कीजिये फिर समझिये
ज़िन्दगी क्या चीज़ है

उनसे नज़रें क्या मिलीं
रौशन फिजाएं हो गयीं
आज जाना प्यार की
जादूगरी क्या चीज़ है


बिखरी जुल्फों ने सिखाई
मौसमों को शायरी
झुकती आँखों ने बताया
मैकशी क्या चीज़ है?


हम लबों से कह ना पाए,
उनसे हाल-ए-दिल कभी
और वो समझे नहीं
ये ख़ामोशी क्या चीज़ है?
जगजीत: 
एक ऐसी पुरकशिश आवाज जिसे सुनने के बाद ऐसा लगता है जैसे कही अनंत ब्रह्माण्ड में कोई स्वर उठा है अभी और धीरे - धीरे कही खोता जा रहा है। जिसे हम महसूस तो कर सकते हैं मगर ठहरने की प्रार्थना भी कैसे करें क्योंकि तब तक तो यह खो ही जायेगी । यह आवाज तो अनंत में खो ही गई मगर कुछ विरासत है उसी से काम चलाना है।इस आवाज को हम सभी का सलाम!